पिटर नवारो की मोदी पर आलोचना, भारत-अमेरिका संबंध पर संकट और रूस-चीन गठजोड़ 2025

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ट्रंप सहयोगी पिटर नवारो का पीएम मोदी पर तीखा हमला: रूस-चीन गठजोड़ पर बढ़ते तनाव और भारत-अमेरिका रिश्तों की चुनौती

हाल ही में, पिटर नवारो (डोनाल्ड ट्रंप के पूर्व व्यापार सलाहकार) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखा हमला बोला है। नवारो ने मोदी को रूस के राष्ट्रपति पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ मिलने पर यह कहते हुए निशाना साधा कि भारत “सबसे बड़े तानाशाहों” के साथ खड़ा है। उनका गुस्सा अमेरिका की ओर से भारत पर लगाए गए टैरिफ़ और रूस से सस्ते तेल की खरीद के मु्द्दे से भी जुड़ा है।

यह बयान उस वक्त आया है जब भारत-अमेरिका संबंध पहले से ही दबाव में हैं। अब सबके मन में एक बड़ा सवाल है—क्या नवारो की ऐसी तीखी आलोचना दोनों देशों के रिश्तों को और खराब कर देगी, या भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पर टिका रहेगा? इस पोस्ट में जानेंगे कि इस ताजा विवाद से भारत-अमेरिका रिश्तों पर क्या असर पड़ सकता है और भारत को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

देखें संबंधित वीडियो: On Cam: Navarro’s New Rant On India Amid PM Modi-Putin-Xi Jinping Meet In China

पृष्ठभूमि: यूएस-भारत व्यापार तनाव और टैरिफ़

भारत-अमेरिका के संबंध हमेशा उतार-चढ़ाव से भरे रहे हैं, लेकिन हाल की घटनाएँ एक नए मोड़ पर पहुंच गई हैं। अमेरिका द्वारा भारतीय सामानों पर भारी टैरिफ़ लगाए जाने के पीछे कई परतें हैं, जिसमें रूस से तेल खरीदना, अमेरिका में बढ़ता राजनैतिक दबाव, और घरेलू कारोबारियों की चिंताएँ एक साथ सामने आई हैं। यह सब व्यापार, राजनीति, और रणनीतिक हितों का लिविंग रूम जैसा खेल बन चुका है, जहाँ हर चाल का दूरगामी असर है।

50% टैरिफ़ का कारण: टैरिफ़ का कारण बताएं—रूस के युद्ध को फंड करने में भारत की भूमिका, अमेरिकी राजनीतिक दबाव, और घरेलू उद्योगों की प्रतिक्रिया

अमेरिका ने भारतीय वस्तुओं पर 50% तक का टैरिफ़ लगा दिया है। सबसे बड़ा सवाल है—इतना कड़ा फैसला क्यों? असल में, इसके पीछे तीन प्रमुख वजहें हैं:

  • रूस-यूक्रेन युद्ध व आर्थिक सहयोग: अमेरिकी प्रशासन और ट्रंप के सलाहकार पिटर नवारो का आरोप है कि भारत रूस से सस्ते दाम पर कच्चा तेल खरीदकर मास्को की युद्ध मशीन को आर्थिक रूप से मजबूत कर रहा है। उनका कहना है कि भारत ये तेल खरीदकर रूस को युद्ध के लिए पैसा दे रहा है। जनवरी-जुलाई 2024 में रूस भारत का सबसे बड़ा कच्चा तेल आपूर्तिकर्ता बन गया, जहाँ से करीब 37% तेल आयात हुआ।
  • अमेरिकी राजनीतिक दबाव: अमेरिका के कई नेताओं के अनुसार, भारत की नीति सीधे-सीधे यूक्रेन में संघर्ष को लंबा खींच रही है। अमेरिकन प्रशासन ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि जब तक भारत रूसी कच्चे तेल की खरीद बंद नहीं करता, उसके ऊपर से टैरिफ़ हटाना मुश्किल है। बीबीसी में छपी खबर के मुताबिक, इस फैसले के पीछे अमेरिकी दबाव साफ देखा जा सकता है।
  • घरेलू उद्योगों की प्रतिक्रिया: टैरिफ़ बढ़ने से भारत के कपड़ा, चमड़ा, रत्न-आभूषण, फुटवियर, केमिकल्स, और मशीनरी जैसे क्षेत्रों को सीधा असर पड़ रहा है। अमेरिकी टैरिफ़ की वजह से इन उत्पादों की अमेरिका में कीमत बढ़ेगी, जिससे भारतीय निर्यातकों को नुकसान और घरेलू उद्योगों को चिंता है।

मुख्य बिंदु: अमेरिका ने खुले तौर पर कहा है कि टैरिफ़ हटाने के लिए भारत को रूस से तेल खरीद बंद करनी होगी। वहीं, भारत का कहना है कि वह अपने 1.4 अरब नागरिकों के लिए ऊर्जा खरीदने पर मजबूर है।

रूसी तेल पर 25% अतिरिक्त टैरिफ़: रूस से आयातित कच्चे तेल पर अतिरिक्त शुल्क का विवरण दें, आयात प्रतिशत, और इस कदम का भारत-यूएस ऊर्जा संबंधों पर प्रभाव

अमेरिका ने भारत के रूसी तेल पर भी 25% अतिरिक्त टैरिफ़ जोड़ दिया है। यह कदम अमेरिका की रणनीतिक प्रतिक्रिया है, जिसका सीधा असर दोनों देशों के ऊर्जा रिश्तों पर पड़ रहा है।

  • आंकड़े और तथ्य: भारत ने 2024-25 के वित्तीय वर्ष में रूस से करीब $68.7 अरब का व्यापार किया, जिसमें कच्चा तेल सबसे बड़ा हिस्सा है। कुल आयात का लगभग 37% हिस्सा अब रूस से आ रहा है। Business Standard की इस रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि भारत लगातार रूस से तेल खरीदने के अपने फैसले का बचाव कर रहा है।
  • वाणिज्यिक असर: अतिरिक्त 25% टैरिफ़ से भारत के रिफाइनरी कारोबार पर दबाव बढ़ेगा, और अमेरिका में भारतीय तेल उत्पादों की प्रतिस्पर्धा घटेगी। अमेरिका का मानना है कि इस बढ़ी हुई लागत से भारत को अपने ऊर्जा स्रोतों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है।
  • ऊर्जा संबंधों पर प्रभाव: यह बदलाव सिर्फ फाइनेंस का नहीं, भरोसे का भी है। भारत-अमेरिका ऊर्जा रिश्तों में यह कड़वाहट बढ़ा रहा है। अमेरिका ने संकेत दिए हैं कि भविष्य में भारत के ऊर्जा फैसलों के आधार पर दोनों देशों के बीच व्यापारिक बातचीत का स्वरूप तय होगा।
  • भारत की दलील: भारत सरकार कहती है कि वैश्विक तेल बाजार में स्थिरता बनाए रखना उसके लिए पहली प्राथमिकता है। यहाँ एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि भारत सिर्फ रूस नहीं, बल्कि अमेरिका से भी तेल खरीद रहा है, और विश्व स्तर पर बेंचमार्क बाजार भावों का पालन कर रहा है। NDTV की इस खास रिपोर्ट में विस्तार से अमेरिकी नज़रिए को दिखाया गया है।

नीचे सारणी में टैरिफ़ स्ट्रक्चर और उसका असर:

टैरिफ़ क्षेत्रों पर असर प्रमुख कारण
50% कुल टैरिफ़ कपड़ा, चमड़ा, आभूषण, केमिकल्स रूस से तेल खरीदी, अमेरिकी दबाव
25% अतिरिक्त रूसी कच्चे तेल, रिफाइंड उत्पाद युद्ध फंडिंग, ऊर्जा जियोपॉलिटिक्स

मुख्य बात: अमेरिका की नई टैरिफ नीतियाँ भारत के विशाल घरेलू बाज़ार, विदेशी रणनीति, और ऊर्जा सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने की उसकी कोशिशों को सीधा चुनौती दे रही हैं। ऊर्जा और व्यापार में अमेरिका की कठोर शर्तें इस रिश्ते को और जटिल बना रही हैं।

पिटर नवारो की आलोचना और मुख्य बिंदु

पिटर नवारो की ओर से भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूस के व्लादिमीर पुतिन, और चीन के शी जिनपिंग को लेकर दिए गए बयानों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हलचल मचा दी है। उनका अंदाज़ सीधा, विवादित और आलोचनात्मक रहा। आइए जानते हैं कि उनके इन तीखे बयानों का कौन-कौन से मुद्दों पर सबसे ज्यादा असर दिखा।

“सबसे बड़े तानाशाह” टिप्पणी: नवारो ने पुतिन और शी को कैसे तानाशाह कहा, इस बयान की भाषा और उसकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया पर चर्चा

पिटर नवारो ने बहुत सख्त भाषा में पुतिन और शी जिनपिंग को “सबसे बड़े तानाशाह” कहा और पीएम मोदी को उनके साथ खड़े होने के लिए सार्वजनिक मंच पर आड़े हाथों लिया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि मोदी जैसे लोकतांत्रिक देश के नेता को इस तरह के “तानाशाहों” के साथ खड़ा होना शोभा नहीं देता।

इस बयान ने सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी हलचल मचा दी। कई पश्चिमी देशों के नेताओं ने नवारो के तर्क को समर्थन दिया, तो भारत में इसे उसकी स्वायत्त विदेश नीति पर हमला माना गया। Livemint की रिपोर्ट के अनुसार, नवारो की आलोचना अमेरिकी टैरिफ़ मामले में भारत की नीतियों से भी जुड़ी है, जिससे बहस और गहरी हो चुकी है।

  • अमेरिका में समर्थन: कुछ अमेरिकी नीति-निर्माताओं ने इसे व्यापार और लोकतंत्र के लिए ठीक बताया।
  • भारत में नकारात्मक प्रतिक्रिया: भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग और सरकार ने नवारो के बयान को ‘अनुचित हस्तक्षेप’ कहा।
  • मीडिया बहस: अंतरराष्ट्रीय मीडिया में ‘मोदी-पुतिन-शी की तिकड़ी’ पर व्यापक विश्लेषण देखने को मिला।

भारत को यूएस, यूरोप, यूक्रेन के साथ गठबंधन करने का आह्वान: नवारो ने भारत को किस दिशा में साझेदारी करने का सुझाव दिया, और यह सुझाव व्यापार व सुरक्षा नीतियों से कैसे जुड़ता है

पिटर नवारो ने खुले तौर पर भारत से अपील की कि वह रूस और चीन के बजाय अमेरिका, यूरोप और यूक्रेन के साथ गठबंधन करे। उनका कहना है कि भारत को ‘तानाशाहों’ के बजाय लोकतांत्रिक देशों के गुट के साथ रहना चाहिए, तभी उसे वैश्विक व्यापार और सुरक्षा में स्थायित्व मिलेगा।

इसका सीधा संदर्भ अमेरिकी टैरिफ और रूस से तेल खरीद पर भारत की नीति से जुड़ता है। नवारो यह दिखाना चाह रहे हैं कि भारत का पश्चिमी देशों के साथ मजबूत गठजोड़ ही उसकी दीर्घकालीन आर्थिक और सुरक्षा से जुड़ी जरूरतों को पूरा कर पाएगा। Yahoo News की रिपोर्ट में भी यही दिखता है कि अमेरिका चाहता है भारत सामरिक व्यापारिक साझेदारी को रूस-चीन की बजाय अपने और यूरोप के पक्ष में ले जाए।

  • व्यापार: अमेरिकी टैरिफ हटाने के लिए यह दबाव सीधा है कि भारत अपनी नीति बदले।
  • सुरक्षा: अमेरिका और यूरोप से गठबंधन करने पर भारत को सामरिक संसाधनों और इंटेलिजेंस साझा करने का लाभ मिल सकता है।
  • रणनीतिक दिशा: यह टिप्पणी भारत पर दो गुटों के बीच किस तरह के साझेदार बनने को लेकर दबाव डालती है।

“ब्राह्मणों के लाभ” का उल्लेख: नवारो ने भारतीय समाज के भीतर लाभकारी वर्ग के बारे में क्या कहा, इस टिप्पणी का राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव समझाएँ

नवारो ने अपने एक इंटरव्यू में चर्चा करते हुए भारतीय समाज के भीतर ‘ब्राह्मण वर्ग’ के कारोबार में लाभ का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने आरोप लगाया कि अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ से भारत के ब्राह्मण व्यापारी ही सबसे ज्यादा फायदा उठा रहे हैं, जबकि आम भारतीयों को इसका कोई सीधा लाभ नहीं मिल रहा।

यह बयान भारत के राजनीतिक और सामाजिक माहौल में काफी संवेदनशील मुद्दा बन गया है। Hindustan Times के लेख के मुताबिक, देश के कई नेताओं और सामाजिक संगठनों ने नवारो की इस टिप्पणी को बेहद आपत्तिजनक और भड़काऊ करार दिया है। विपक्षी नेताओं ने इसे भारतीय समाज की विविधता और जटिलता की गलत समझ कहा।

  • राजनीतिक असर: सत्ताधारी दल और विपक्ष, दोनों ने इस बयान पर अपनी-अपनी तरह से प्रतिक्रिया दी। कई नेताओं ने इसे चुनावी राजनीति से जोड़कर देखा।
  • सामाजिक बहस: जातिगत सवाल पर विदेशी नेता का हस्तक्षेप भारतीय समाज के लिए ठीक नहीं माना गया। कई संगठनों ने इसकी कड़ी आलोचना की।
  • अंतरराष्ट्रीय नजरिया: कुछ विदेशी एक्सपर्ट्स ने इसे भारत के सामाजिक ढांचे पर एक सतही और पूर्वाग्रह भरी टिप्पणी बताया।

नवारो की इन टिप्पणियों ने न सिर्फ कूटनीतिक संबंधों को झटका दिया है, बल्कि भारत के सामाजिक मुद्दों को भी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर लाकर चर्चाओं का केंद्र बना दिया है।

SCO शिखर सम्मेलन में मोदी, पुतिन, शी की स्थिति

SCO शिखर सम्मेलन में तीनों नेताओं की मौजूदगी पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा संकेत रही। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी-अपनी सोच और रणनीति को खुले मंच पर रखा। इनके बयान सिर्फ औपचारिकता भर नहीं थे, बल्कि भारत समेत समूचे क्षेत्र की विदेश नीति, सुरक्षा और व्यापार के लिए गहरा संदेश लिए थे।

मोदी का व्यापार और कनेक्टिविटी संदेश: मोदी ने कनेक्टिविटी और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए क्या कहा, और इस बात को किस रणनीतिक उद्देश्यों से जोड़ा

प्रधानमंत्री मोदी ने इस सम्मेलन का इस्तेमाल भारत के लिए नए व्यापार मार्ग और कनेक्टिविटी के नए रास्तों की पैरवी में किया। उन्होंने खुलकर कहा कि “संपर्क (कनेक्टिविटी) और क्षेत्रीय व्यापार बढ़ाना ही शांति और समृद्धि की कुंजी है”। मोदी का फोकस दो मुख्य बातों पर रहा:

  • स्थानीय कनेक्टिविटी: भारत ने सीमा पार सडक, रेलवे और डिजिटल नेटवर्क को मजबूत करने पर जोर दिया।
  • व्यापार के नए रास्ते: मोदी ने साफ तौर पर कहा कि भारत ‘सभी के लिए खुले, समावेशी और पारदर्शी’ व्यापार का समर्थन करता है।

मोदी की इन बातों के पीछे भारत की रणनीति साफ दिखती है। वह सिर्फ अपने लिए नहीं, पूरे दक्षिण एशिया को कारोबारी अवसरों से जोड़ना चाहता है। इससे भारत ‘गेटवे’ की भूमिका में रहे और उसकी कूटनीतिक जगह मजबूत हो। मोदी ने चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) पर अप्रत्यक्ष तौर पर सवाल उठाते हुए पारदर्शिता और समानता को आगे बढ़ाने की बात की। इससे भारत अपनी वैश्विक छवि को स्वतंत्र और क्षेत्रीय स्थिरता वाला देश दिखाना चाहता है। REUTERS की ये रिपोर्ट बताती है कि मोदी का संदेश सीधे तौर पर पश्चिम, रूस और चीन—तीनों को साधता है।

पुतिन का यूरेशियन सुरक्षा आदेश का प्रचार: पुतिन ने SCO के भीतर सुरक्षा और मुद्रा उपयोग पर क्या कहा, और यह भारत की सुरक्षा नीति के साथ कैसे जुड़ता है

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूरेशिया क्षेत्र में एक नए ‘सुरक्षा ऑर्डर’ की जरूरत पर बात की। पुतिन ने एससीओ (SCO) को पश्चिमी दबाव का जवाब बताकर इसे नवीन व्यापार, ऊर्जा और मुद्रा सहयोग का केंद्र बताया। उनके भाषण के मुख्य बिंदु:

  • सुरक्षा पर फोकस: पुतिन ने कहा कि क्षेत्रीय आतंकवाद, नशीली दवाओं की तस्करी और अवैध हथियारों पर कड़ा नियंत्रण जरूरी है।
  • स्थानीय मुद्रा का उपयोग: पुतिन ने डॉलर के बजाय स्थानीय करेंसी में व्यापार बढ़ाने का सुझाव रखा। इससे रूस को पश्चिमी पाबंदियों से राहत मिलेगी और भारत जैसे देशों को भी विविधता मिलेगी।

पुतिन की इस रणनीति से भारत को भी फौरन फायदा है। सुरक्षा सहयोग का दायरा बढ़ाना, भारतीय नीति के लिए भी अहम है। भारत खुद आतंकवाद और कट्टरपंथ पर सख्त है, इसलिए रूस का रवैया उसे सूट करता है। साथ ही, मुद्रा विविधता की वकालत से भारत भी अपनी आर्थिक स्वतंत्रता बचा सकता है। इस पर CNBC की रिपोर्ट विस्तार से प्रकाश डालती है कि पुतिन ने SCO को एक स्वतंत्र आर्थिक और सुरक्षा मंच के रूप में पेश किया।

शी जिंपिंग का वैश्विक शास पर दृष्टिकोण: शी जिंपिंग ने वैश्विक शास, न्याय और आर्थिक सहयोग के बारे में क्या कहा, और यह भारत-चीन संबंधों को कैसे प्रभावित करता है

शी जिनपिंग ने सम्मेलन में “नई वैश्विक गवर्नेंस” की मजबूत वकालत की। उन्होंने कहा कि दुनिया का भविष्य न्याय, समानता और सहयोग पर आधारित होना चाहिए। उनके अनुसार:

  • आर्थिक सहयोग: शी ने सभी सदस्य देशों को खुलकर आर्थिक साझेदारी के लिए आमंत्रित किया।
  • विकास बैंक का प्रस्ताव: शी ने SCO के लिए एक नया ‘डेवलपमेंट बैंक’ शुरू करने की घोषणा भी की। यह पश्चिमी वित्तीय संस्थाओं से स्वतंत्र आर्थिक ढांचा तैयार करेगा। (AP NEWS रिपोर्ट)
  • न्याय और बहुपक्षीयता: शी की नीति, वैश्विक न्याय और पारदर्शिता के नारों में लिपटी रहती है, पर भारत के संदर्भ में चुनौतियाँ बरकरार हैं—जैसे सीमा विवाद और व्यापारीक टकराव।

शी जिनपिंग के संदेश से भारत-चीन संबंधों में ज़्यादा नजदीकी की बजाय ‘मजबूर रणनीतिक सहयोग’ का रंग साफ झलकता है। भारत वैश्विक व्यापार और शासन में सहभागिता चाहता है, पर चीन की बढ़ती दादागिरी उसे सतर्क करती है। फिर भी, SCO मंच पर खुले संवाद और आर्थिक सहयोग के मौकों से भारत सामरिक रूप से खुद को मजबूत बना सकता है।

इन तीनों नेताओं के बयान यह दिखाते हैं कि भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति, बहुपक्षीय संवाद और क्षेत्रीय स्थिरता की ओर कैसे बढ़ रहा है। SCO मंच भारत के लिए मौके और चुनौतियां, दोनों लेकर आता है।

संभावित प्रभाव और आगे की दिशा

ट्रंप के सहयोगी पिटर नवारो की तीखी टिप्पणी और टैरिफ़ विवाद ने भारत-अमेरिका रिश्तों में नई असहमति पैदा कर दी है। जहां एक ओर अमेरिकी प्रतिबंधों का सीधा असर भारत के निर्यात और घरेलू उद्योगों पर देखने को मिल रहा है, वहीं दूसरी तरफ भारत ने अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता पर जोर देते हुए किसी भी दबाव में न आने का संकेत दिया है। मौजूदा हालात में, कूटनीति और व्यापार के स्तर पर किस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए—यही सबसे बड़ा सवाल है।

भारत-यूएस संबंधों पर संभावित जोखिम: टैरिफ़ और नवारो की टिप्पणी से उत्पन्न होने वाले कूटनीतिक तनाव और आर्थिक जोखिमों को रेखांकित करें

नवारो की टिप्पणियों और 50% टैरिफ़ जैसे तगड़े फैसलों के बाद, भारत-अमेरिका संबंधों में कई तरह के खतरे सामने आए हैं:

  • व्यापार घाटा और निर्यात पर असर: अमेरिकी टैरिफ़ के बाद कई प्रमुख भारतीय क्षेत्रों—जैसे टेक्सटाइल्स, गहने और चमड़ा—की अमेरिका में प्रतिस्पर्धा कमज़ोर हो गई है। ताजा रिपोर्टों के अनुसार, इन टैरिफ़ से भारतीय निर्यातकों को करीब 70% तक घाटा हो सकता है। इसका सीधा असर लाखों नौकरियों और छोटे कारोबारियों पर पड़ सकता है। बीबीसी की यह रिपोर्ट इस असर को विस्तार से समझाती है।
  • डिप्लोमैटिक टकराव: अमेरिका की तरफ से यह कदम ‘सजा’ जैसा माना जा रहा है। भारतीय सरकार इसे गैर-जरूरी और अन्यायपूर्ण बता चुकी है। अमेरिका लगातार भारत पर नैतिक दबाव बना रहा है कि वो रूस से तेल न खरीदे; इससे दोनों देशों के बीच भरोसे का संकट भी बढ़ा है।
  • अंतर्राष्ट्रीय छवि: पिटर नवारो के बयानों और कड़े फैसलों से भारत पर ‘तानाशाहों’ का साथ देने का ठप्पा लग रहा है, जिससे उसकी वैश्विक पहचान को चोट पहुंच सकती है।
  • सामरिक दायरे में अविश्वास: अमेरिकी प्रशासन भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को चुनौती मानता है, वहीं भारत घरेलू ज़रूरतों को प्राथमिकता देने की बात करता है। इस माहौल में, दोनों देशों के बीच सामरिक साझेदारी कमजोर पड़ सकती है।

भारतीय सरकार लगातार यह दोहरा रही है कि वह अपने 1.4 अरब नागरिकों के लिए सस्ता और स्थिर तेल खरीदना राष्ट्रहित में जरूरी मानती है। Reuters की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका के इन फैसलों से द्विपक्षीय वार्ता और आपसी समझ में बाधा पैदा हो रही है।

भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का तर्क: मोदी की स्वतंत्र नीति की अवधारणा, गैर-एकतरफा गठबंधन की आवश्यकता, और इसे कैसे न्यायोचित किया जा रहा है, इस पर चर्चा करें

मोदी सरकार की विदेश नीति की बुनियाद ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ है। भारत, दुनिया के दो बड़े गुटों—अमेरिका-यूरोप और रूस-चीन—के बीच किसी एक खेमे में पूरी तरह नहीं जाना चाहता।

  • ऊर्जा सुरक्षा: भारत की प्राथमिकता है कि देश की ऊर्जा आवश्यकताएँ पूरी हों। यही वजह है कि वह रूस से तेल आयात जारी रखे हुए है, भले ही अमेरिका कितना भी विरोध करे। यह नीति भारत की घरेलू जरूरतों और कम लागत वाले विकल्पों पर केंद्रित है।
  • मल्टी-वेक्टर डिप्लोमेसी: भारत हर स्तर पर बहुपक्षीय सहयोग की बात करता है—चाहे SCO, BRICS या G20। एकतरफा दबाव को नकारते हुए, वह हर साझेदार के साथ अपने हिसाब से तालमेल बिठाता है। Newsweek की रिपोर्ट के मुताबिक, मोदी सरकार ने बार-बार कहा कि भारत की नीति “भारतीय हित में” है, न कि किसी गुट के कहने पर।
  • उदारवादी वैश्विक दृष्टिकोण: भारत मानता है कि रणनीतिक स्वायत्तता से ही उसे अपने क्षेत्रीय और वैश्विक उद्देश्य पूरे करने में मदद मिलती है। इससे वह सिर्फ अमेरिका या रूस-चीन नहीं, बल्कि यूरोप, अफ्रीका और एशिया के बाकी देशों के साथ भी संतुलित रिश्ते बनाए रख सकता है।
  • मजबूत तर्क: भारत एक स्वतंत्र लोकतंत्र है और अपने फैसले खुद ले सकता है। यह बात मोदी, एनर्जी जरूरतों के मुद्दे पर खुले मंच पर भी उठा चुके हैं।

यह सब दिखाता है कि भारत ‘किसी के पाले में जाने’ के बजाय अपने देशवासियों के विकास और सुरक्षा को सर्वोपरि रख रहा है। नवारो की आलोचना के जवाब में भारत ने यही संदेश दुनिया को दिया है कि अपनी विदेश नीति में वह कोई समझौता नहीं करेगा। NDTV की ताजा रिपोर्ट भी इसी नजरिए का समर्थन करती है।

भविष्य में व्यापार एवं कूटनीति के विकल्प: भारत के लिए वैकल्पिक साझेदारियों, बहुपक्षीय मंचों, और संभावित टैरिफ़ राहत के रास्तों को प्रस्तुत करें

अमेरिकी दबाव और टैरिफ़ की वजह से भारत ने भविष्य के लिए कुछ ठोस विकल्पों की ओर रुख करना शुरू कर दिया है:

  • नये साझेदार देश: भारत अब लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ नए व्यापार और निवेश के अवसर खोज रहा है। इससे वह अमेरिकी बाजार पर निर्भरता कम कर सकता है।
  • यूरोप के साथ तेजी से बातचीत: भारत-ईयू फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (FTA) की संभावनाएं फिर से चर्चा में हैं। इसमें कृषि, टेक्सटाइल्स, मशीनरी, और दवा उद्योगों के लिए बड़े मौके हैं।
  • मल्टी लेयर डिप्लोमेसी: भारत SCO, BRICS, ASEAN और अफ्रीकी यूनियन जैसे मंचों के ज़रिए अपनी सहयोग नीति को और मजबूत कर रहा है। इससे दुनिया भर के नए बाज़ार और निवेश के विकल्प खुल रहे हैं।
  • घरेलू कारोबार और स्टार्टअप्स को बढ़ावा: मोदी सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्थानीय उत्पादन’ को नई रफ्तार दी है ताकि घरेलू बाजार को वैश्विक अस्थिरता से बचाया जा सके। The Guardian का यह लेख बताता है कि कैसे भारत फिस्कल पॉलिसी और टैक्स रिफॉर्म के ज़रिए उत्पादन और निर्यात कमियों की भरपाई करने की कोशिश कर रहा है।
  • संभावित राहत के रास्ते: कुछ खास उत्पाद, जैसे तकनीकी और ग्रीन एनर्जी, पर भारत अमेरिका के साथ बातचीत के लिए तैयार है। उम्मीद की जा रही है कि यदि भारत अपनी कुछ रणनीति में लचीलापन दिखाए तो कुछ टैरिफ़ में आंशिक राहत मिल सकती है।

संक्षेप में, भारत विकल्पों की टोकरी तैयार कर रहा है ताकि अमेरिकी दबाव आने वाले सालों में उसकी अर्थव्यवस्था और विदेश नीति पर हावी न हो सके। वह पुराने सहयोगियों के साथ नए रिश्ते भी मजबूत करना चाहता है।

इस सबके बीच भारत की मुख्य प्राथमिकता यही है—अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा, ऊर्जा और आर्थिक सुरक्षा, और विकल्पों की हमेशा तैयार नीति।

निष्कर्ष

पिटर नवारो की तीखी आलोचना और अमेरिकी टैरिफ़ भारत-अमेरिका संबंधों में तनाव का कारण बने हैं, लेकिन इन घटनाओं ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को और ज़्यादा स्पष्ट किया है। अमेरिका की चिंता है कि भारत रूस के कच्चे तेल से मुनाफा कमा रहा है, जबकि भारत अपने हितों की रक्षा के लिए विदेश नीति बदलने को तैयार नहीं है। नवारो की टिप्पणियाँ मीडिया में सुर्खियाँ जरूर बनीं, मगर इनका भारत की असल नीति पर सीमित असर दिखता है।

भारत जिस तरह आत्मनिर्भर, विविध साझेदारियों और बहुपक्षीय मंचों की ओर बढ़ रहा है, उससे साफ है कि उसकी विदेश नीति एकतरफा दबाव से प्रभावित नहीं होगी। सभी देशों के साथ संतुलन और अपने नागरिकों के हित सर्वोपरि रहेंगे।

अब बड़ा सवाल है, क्या यह कड़ा रुख दोनों देशों के लिए स्थायी दूरी बनाएगा या भविष्य में फिर समझौते की कोई नई राह निकलेगी? आपकी राय क्या है—क्या भारत को अपनी मौजूदा दिशा पर अडिग रहना चाहिए या रणनीति में लचीलापन दिखाना चाहिए?

इस लेख के लिए समय निकालने और विचार साझा करने के लिए धन्यवाद। अपने विचार नीचे शेयर करें।

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