नेपाल में राजशाही, ज्ञानेंद्र शाह और हिंदू राष्ट्र की मांग 2025: ताजा विरोध, अपडेट्स

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नेपाल के राजा ज्ञानेंद्र शाह: हालिया विरोध, राजशाही की वापसी और हिंदू राष्ट्र की मांग (2024-25)

नेपाल में 2025 की शुरुआत से ही सड़कों पर उमड़ी भीड़, नारों और झंडों की वजह से फिर से एक सवाल सामने आया—क्या राजशाही वापसी की राह पर है? हाल के महीनों में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की वापसी और नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग को लेकर हुआ आयोजन सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें जनता की नाराजगी, भरोसे की तलाश और सांस्कृतिक पहचान की बहस छुपी है।

लोगों में भ्रष्टाचार, बार-बार बदलती सरकारें और बेरोजगारी को लेकर गंभीर असंतोष है। माओवादी संघर्ष और गणराज्य बनने के बाद भी आम जिंदगी में सुधार नहीं आया। यही वजह है कि बहुत से लोग, खासकर युवा, राजा की वापसी और हिंदू राष्ट्र का समर्थन कर रहे हैं। नेपाल के लिए यह बहस सिर्फ किसी एक नेता या पार्टी से कहीं बड़ी है—यह सवाल आज भी लोगों की सामाजिक इच्छा, असंतोष और भविष्य की उम्मीदों से जुड़ा हुआ है।

यूट्यूब पर पूरी वीडियो देखने के लिए यहां जाएं: Nepal Protests 2025: Social Media Ban Sparks Youth-Led Uprising in Kathmandu | Police Clash | 4K

ज्ञानेंद्र शाह कौन हैं?

नेपाल के आखिरी राजा ज्ञानेंद्र शाह का नाम हाल के वर्षों में एक बार फिर चर्चा का केंद्र बन गया है। नेपाल की राजनीति में उनका सफर, उनका पारिवारिक इतिहास और उनका व्यक्तिगत जीवन हमेशा से ही आम लोगों के लिए दिलचस्प और रहस्यमय रहा है। उनका जीवन केवल नेपाल के शाही इतिहास से ही नहीं, बल्कि देश के सामाजिक और सांस्कृतिक भविष्य से भी गहराई से जुड़ा है। आइए, ज्ञानेंद्र शाह की कहानी को करीब से जानते हैं।

जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि

ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह का जन्म 7 जुलाई 1947 को काठमांडू में हुआ था। उनके पिता राजा महेंद्र, नेपाल के प्रभावशाली और निर्णायक शासकों में गिने जाते हैं। उनकी माँ इन्द्र राज्यलक्ष्मी देवी थीं। ज्ञानेंद्र, महेंद्र के छोटे पुत्र हैं, जबकि उनके बड़े भाई राजा बीरेन्द्र थे, जो 1972 से 2001 तक नेपाल के राजा रहे।

उनका परिवार, शाह वंश, 1768 से नेपाल पर राज करता आया था। ज्ञानेंद्र का बचपन राजसी माहौल में बीता और उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा भारत के दार्जिलिंग के प्रसिद्ध सेंट जोसेफ स्कूल से ली। बाद में उन्होंने त्रिभुवन विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। अधिक जानकारी के लिए आप ज्ञानेंद्र शाह की पूरी जीवनी यहाँ पढ़ सकते हैं

पारिवारिक संबंध (संक्षिप्त तालिका)

नाम संबंध पद/भूमिका
महेंद्र वीर बिक्रम शाह पिता नेपाल के राजा (1955–1972)
इन्द्र राज्यलक्ष्मी देवी माँ नेपाल की रानी
बीरेन्द्र वीर बिक्रम शाह भाई नेपाल के राजा (1972–2001)
कोमल राज्यलक्ष्मी देवी पत्नी नेपाल की अंतिम महारानी
पारस शाह पुत्र नेपाल के राजकुमार
प्रेरणा शाह पुत्री

राजा बनने तक की यात्रा

आपको जानकर हैरानी हो सकती है कि ज्ञानेंद्र ने नेपाल के राजसिंहासन पर दो बार बैठने का अनुभव किया। पहली बार, वे मात्र तीन साल की उम्र में 1950 में राजा बने थे, जब उनके दादा त्रिभुवन देश छोड़कर भारत चले गए थे। यह राजत्व कुछ ही महीनों तक चला। असली संघर्ष तो उनके जीवन के अगले अध्याय में था।

नेपाल के शाही परिवार में 2001 में घटी घटनाओं ने इतिहास बदल दिया। 1 जून 2001 को हुए शाही हत्याकांड में राजा बीरेन्द्र, रानी ऐश्वर्या समेत शाही परिवार के कई सदस्य मारे गए। इस दर्दनाक पल के बाद, ज्ञानेंद्र शाह को 4 जून 2001 को राजा घोषित किया गया।

उनका दूसरा और अंतिम कार्यकाल 2001 से 2008 तक रहा। इस दौरान देश में माओवादी आंदोलन, राजनीतिक अस्थिरता और लोकतांत्रिक मांगें तेज होती गईं। 2005 में ज्ञानेंद्र ने संविधान निलंबित करके सीधे शासन शुरू किया, जिससे जनता और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में असंतोष फैल गया। अंततः 2006 में उन्होंने सत्ता वापस अर्थसंसद को सौंप दी और 2008 में नेपाल में शाही व्यवस्था हमेशा के लिए समाप्त हो गई।

व्यक्तिगत जीवन और निजी रुचियां

राजा ज्ञानेंद्र का जीवन केवल राजनीति तक सीमित नहीं रहा। वे प्रकृति प्रेमी रहे हैं और King Mahendra Trust for Nature Conservation के अध्यक्ष रहे। व्यवसाय के क्षेत्र में भी उनका एक मजबूत योगदान रहा है। उनकी संपत्ति में होटल, वन्यजीव व्यवसाय और अनेक निवेश शामिल हैं।

व्यक्तिगत तौर पर ज्ञानेंद्र को अक्सर अपनी पत्नी कोमल, पुत्र पारस और बेटी प्रेरणा के साथ पारिवारिक आयोजनों और धार्मिक कार्यक्रमों में देखा जाता है। 2008 के बाद भी वे नेपाल की संस्कृति, धर्म और राजनीति से जुड़े आयोजनों में शिरकत करते रहे हैं।

नेपाल में आज भी उनके समर्थकों की कमी नहीं है, खासकर वे लोग जो नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र और राजशाही देखना चाहते हैं। ज्ञानेन्द्र शाह की जीवनी और राजसी विरासत के बारे में अधिक जानें

नेपाल में राजशाही का सफर और ज्ञानेंद्र शाह की भूमिका

नेपाल की आधुनिक राजनीतिक कहानी में राजशाही और राजा ज्ञानेंद्र शाह की भूमिका सबसे रोचक और विवादास्पद रही है। लगभग ढाई सौ साल से चली आ रही शाही सत्ता का सफर, सत्ता के लिए किए गए संघर्ष, पारिवारिक घटनाएँ और प्रमुख विवाद, नेपाल की आज की तस्वीर को समझने के लिए बेहद अहम हैं। इस अनुभाग में हम उस यात्रा और घटनाओं की चर्चा करेंगे, जब ज्ञानेंद्र शाह ने दो बार नेपाल की राजगद्दी संभाली और कैसे उनका दौर नेपाली राजनीति में नए मोड़ का कारण बना।

राजा बनने की घटनाएँ: ज्ञानेंद्र शाह 1950 में पहली बार और 2001 में दूसरी बार

ज्ञानेंद्र शाह को दो बार नेपाल का राजा बनाया गया, और दोनों बार उनके पास सत्ता असाधारण परिस्थितियों में आई।

  • 1950 में पहली बार राजा बनना:
    तीन साल की उम्र में, ज्ञानेंद्र 1950 में पहली बार राजा बने। उस समय नेपाली राजनीति में उतल-पुतल थी। उनके दादा त्रिभुवन भारत शरण में चले गए थे, जिससे तत्कालीन राणा शासकों ने छोटे ज्ञानेंद्र को राजा घोषित कर दिया। लेकिन यह राजत्व सिर्फ कुछ ही महीनों तक चला। 1951 में त्रिभुवन के लौटने के बाद ज्ञानेंद्र को गद्दी छोड़नी पड़ी।
  • 2001 में दूसरी बार, एक दुखद हादसे के बाद:
    सबसे बड़ा मोड़ 1 जून 2001 की रात को आया। नारायणहिटी महल में नेपाल के शाही हत्याकांड ने पूरे देश को हिला दिया, जब राजा बीरेन्द्र, रानी ऐश्वर्या समेत आठ शाही सदस्य मारे गए। इस हत्याकांड में बीरेन्द्र के बेटे, तत्कालीन युवराज दीपेन्द्र, को जिम्मेदार माना गया, जिन्होंने खुद को भी गोली मार ली थी। इन घटनाओं के बाद 4 जून 2001 को ज्ञानेंद्र शाह को नेपाल का राजा बनाया गया।
    इस पूरी कहानी को विस्तार में नेपाल शाही हत्याकांड के स्रोत में पढ़ा जा सकता है, जहाँ यह घटना न केवल शाही परिवार बल्कि नेपाल के सामाजिक और राजनीतिक भविष्य के लिए सबसे बड़ा ट्रेजेडी बन गई।

दूसरी बार राजा बनने के बाद, ज्ञानेंद्र शाह को एक ऐसे नेपाल का नेतृत्व मिला जो माओवादी संकट, अस्थिरता और गहरे राजनीतिक अविश्वास से जूझ रहा था। इस दौरान उनकी भूमिका निर्णायक तो थी, लेकिन विवादों से भी भरी रही।
करीब सात साल के इस कार्यकाल ने राजशाही की लोकतांत्रिक और संवैधानिक सीमाओं को भी चुनौती दी।
ज्ञानेंद्र शाह की जीवन यात्रा, उनके काम और उपलब्धियां ब्रिटैनिका के बायोग्राफी लेख में और जान सकते हैं।

राजशाही के दौरान विवाद और संघर्ष

ज्ञानेंद्र शाह जब दूसरी बार राजा बने, तब नेपाल गहरे उथल-पुथल के दौर में था। माओवादी विद्रोह लगातार सत्ता व्यवस्था को चुनौती दे रहा था। जनता में असंतोष भड़क रहा था। इन चुनौतियों के बीच शाह ने कई विवादस्पद फैसले लिए।

  • राजनीतिक अनिश्चितता और सत्ता छीनना:
    2002 से 2005 के बीच ज्ञानेंद्र ने कई बार प्रधानमंत्री को बर्खास्त किया और सरकार के कामकाज को बाधित किया। जब हालात नहीं संभले, तो 1 फरवरी 2005 को उन्होंने संविधान को निलंबित कर, खुद ही देश की सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली। इससे देश में राजनीतिक संकट चरम पर पहुँच गया।
    इस फैसले की कड़ी आलोचना राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई। नागरिक अधिकार, प्रेस की स्वतंत्रता, और लोकतंत्र के लिए आंदोलन शुरू हो गए।
  • आन्दोलन और संस्थागत बदलाव:
    2006 में जनता के भारी विरोध और प्रमुख दलों के एकजुट आंदोलन के कारण ज्ञानेंद्र को सत्ता छोड़नी पड़ी। संसद को पुनर्स्थापित करना पड़ा। इसके बाद अंतरिम संविधान बना, और अप्रैल 2008 में संविधान सभा ने नेपाल को लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया।
    इस घटना ने ढाई सौ साल पुरानी शाह वंश की राजशाही को हमेशा के लिए खत्म कर दिया।
  • जनता की भावनाएँ और नए बहस:
    ज्ञानेंद्र के कार्यकाल में कुछ लोगों ने राजशाही और हिंदू राष्ट्र की मांग को समर्थन दिया, जबकि अनेक नागरिक लोकतंत्र और संविधान के साथ खड़े रहे।
    उनके शासनकाल के दौरान हुई घटनाओं की विस्तृत जानकारी और विश्लेषण के लिए
    ब्रिटेनिका के लेख
    और
    ज्ञानेंद्र शाह के विकिपीडिया पृष्ठ
    पर उपलब्ध है।

संक्षेप में:
ज्ञानेंद्र शाह का दौर नेपाली राजशाही का अंतिम दौर सिद्ध हुआ, जिसमें सत्ता, संघर्ष, और समाज तीनों के समीकरण लगातार बदलते नजर आए। यह यात्रा नेपाल की आधुनिक पहचान और उसके लोकतांत्रिक भविष्य के बनने की कहानी को स्पष्ट करती है।

नेपाल में राजशाही की समाप्ति और गणतंत्र की शुरुआत

नेपाल की राजनीति में सबसे बड़ा मोड़ 2008 में आया जब सदियों पुरानी राजशाही का अंत हुआ और देश ने गणतंत्र की राह अपनाई। यह बदलाव अचानक नहीं आया, इसके पीछे कई सालों की जनआंदोलनों, माओवादी संघर्षों और राजशाही के प्रति गहराते अविश्वास की लंबी कसौटी है। आखिर किन वजहों से नेपाल की संसद ने 240 साल पुरानी रॉयल फैमिली को विदाई दी? आइये, जानते हैं इस ऐतिहासिक परिवर्तन के प्रमुख पहलू।

2006 का जनआंदोलन: बदलाव की असली चिंगारी

2006 में जब नेपाल की सड़कों पर लाखों लोग जुटे, तब देश में बदलाव की हवा ने जोर पकड़ा। इसे दूसरी जनआंदोलन (जनआन्दोलन द्वितीय) कहा गया। जनता, राजनीतिक दल, विद्यार्थी, मजदूर—सभी ने मिलकर राजा की सीधी सत्ता के खिलाफ आवाज उठाई।

  • लोग कर्फ़्यू को तोड़कर रैलियों में शामिल हुए।
  • महिलाओं और युवाओं की भागीदारी ने आंदोलन में जान फूंक दी।
  • राजधानी काठमांडू से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक, हर जगह एक ही आवाज थी–राजशाही खत्म करो।

इस आंदोलन का असर इतना गहरा था कि राजा ज्ञानेंद्र को देश चलाने का अपना “पूर्ण” अधिकार वापस संसद को लौटाना पड़ा। यह आंदोलन सिर्फ तात्कालिक गुस्सा नहीं था, बल्कि दशकों की असमानता और आर्थिक तकलीफ का नतीजा था। विस्तार में पढ़ें 2006 के नेपाली जनआन्दोलन की कहानी

माओवादी विद्रोह: शांतिपूर्ण गणतंत्र की नींव

1996 से शुरू हुआ माओवादी आंदोलन भी राजशाही के खिलाफ बदलाव की एक बहुत बड़ी वजह बना। ये विद्रोही गुट “जनता सरकार” की मांग कर रहे थे। ग्रामीण नेपाल में गरीबी, भेदभाव, और बेरोजगारी के खिलाफ उनके प्रयासों को आम जनता का समर्थन मिला। माओवादी संघर्ष ने राजनीति की केन्द्रीय धारा को हिलाकर रख दिया।

  • एक दशक तक चले गृहयुद्ध में 17,000 से ज्यादा लोगों की जान गई।
  • राज्य और माओवादियों के बीच 2006 में शांति समझौता हुआ।
  • समझौते के बाद माओवादी पहली बार मुख्यधारा की राजनीति में आए।

इस शांति प्रक्रिया और माओवादी प्रभाव ने राजशाही की चूले हिलाई और गणराज्य की राह साफ की। यहाँ देखें नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन की पूरी लाईन-अप।

जनता की मांग और लोकतंत्र का सपना

जनता का गुस्सा सिर्फ सत्ता के केंद्रीकरण या किसी राजा के फैसलों पर नहीं था, बल्कि असमानता, भ्रष्टाचार और बार-बार अस्थिर सरकारों के खिलाफ भी था। लोग चाहते थे:

  • बराबरी और निष्पक्षता पर आधारित राजनीति,
  • खुला संविधान और धर्मनिरपेक्ष शासन,
  • सरकार में आम लोगों की सीधी भागीदारी।

नेपाली युवाओं और मीडिया ने इस बदलाव को सोशल मीडिया, रैलियों और नागरिक पहल से बढ़ावा दिया। बहुमत जनता लोकतंत्रीकरण के साथ-साथ देश को आधुनिक दिशा में ले जाने के लिए तैयार थी।

राजशाही का अंत और गणतांत्रिक नेपाल की घोषणा

2007 में नेपाल की संसद में ऐतिहासिक प्रस्ताव पास हुआ, जिसमें किसी भी बहाने से राजा की वापसी पर रोक लगा दी गई। अप्रैल 2008 में संविधान सभा के चुनाव हुए। माओवादी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे। इसी सभा ने 28 मई 2008 को नेपाल को “गणराज्य” घोषित किया और ज्ञानेंद्र शाह का राजकीय युग औपचारिक रूप से समाप्त हो गया।

  • राजा को महल खाली करने और आम नागरिक की तरह रहने का आदेश दिया गया।
  • नेपाल का नया संविधान तैयार करने के लिए प्रक्रिया शुरू हुई।
  • देश को लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और संघीय गणराज्य के तौर पर पुनर्निर्मित किया गया।

इस पूरी यात्रा की विस्तृत जानकारी ब्रिटैनिका के Nepal – Monarchy, Democracy, Revolution अनुभाग में पढ़ सकते हैं।

बदलाव के बाद की चुनौतियाँ

गणतंत्र की घोषणा के बाद नेपाल के सामने नए सवाल खड़े हुए:

  • आर्थिक सुधार और रोजगार के बेहतर विकल्प खोजना पड़ा।
  • नए संविधान पर सहमति बनाना आसान नहीं था।
  • राजनीति में स्थिरता और लोगों का भरोसा फिर से जीतना बड़ी चुनौती रही।

इसके बावजूद, नेपाल ने दिखा दिया कि जब लोग एकजुट होते हैं तो भारी से भारी व्यवस्था भी बदल सकती है। नेपाल के लोकतांत्रिक यात्रा पर FES Asia का लेख इस बदलाव के सामाजिक और राजनीतिक असर को समझने के लिए शानदार स्रोत है।

हाल के वर्षों में ज्ञानेंद्र शाह और राजशाही की वापसी की मांग

नेपाल में 2024 और 2025 की शुरुआत के साथ ही एक नई लहर दिखाई दी, जिसमें सड़कों पर भारी भीड़, नारों और झंडों के साथ राजशाही की वापसी और नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग ने जोर पकड़ लिया। लोगों में लगातार बढ़ती निराशा, सरकार पर गुस्सा और सांस्कृतिक पहचान की चिंता ने इन आंदोलनों को जन्म दिया। खास बात यह है कि इस बार युवाओं की भागीदारी भी जबरदस्त रही है।

2024-25 के विरोध-प्रदर्शन और उनके कारण

2024 के अंत और 2025 के मार्च माह में काठमांडू समेत नेपाल के कई हिस्सों में हज़ारों लोग सड़कों पर उतर आए। प्रमुख प्रदर्शन 9 मार्च 2025 को काठमांडू एयरपोर्ट के पास दिखा, जब पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के स्वागत में भीड़ ने उनकी वापसी को लेकर समर्थन स्वरूप जोरदार प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन सिर्फ औपचारिकता नहीं था, बल्कि कई जगहों पर सरकारी संपत्ति को नुकसान, मीडिया दफ्तरों में तोड़फोड़ और पुलिस के साथ तीखे टकराव भी हुए।

इन विरोध-प्रदर्शनों की मुख्य बातें:

  • कौन लोग शामिल थे:
    प्रदर्शनकारियों में बुजुर्गों से लेकर बड़ी संख्या में युवा, महिलाएं, और पूर्व सैनिक तक शामिल थे। इनमें Rastriya Prajatantra Party (RPP) और हिंदू राष्ट्र समर्थक संगठनों की भूमिका प्रमुख रही।
  • मुख्य माँगें:
    • नेपाल में फिर से संवैधानिक राजशाही की बहाली, जिसमें ज्ञानेंद्र शाह को प्रतीक रूप में राजा बनाया जाए।
    • नेपाल को फिर से “हिंदू राष्ट्र” घोषित किया जाए, क्योंकि लोग मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता के बाद हिंदू सांस्कृतिक पहचान कमजोर हुई है।
    • भ्रष्टाचार, राजनीतिक अस्थिरता और बेरोजगारी के खिलाफ असरदार शासन लाने की माँग भी है।
  • प्रदर्शन क्यों भड़के:
    पिछले 15 साल में नेपाल की राजनीति बार-बार अस्थिर रही, सरकारें बदलती रहीं, और भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए। लोगों का भरोसा मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था से उठता गया। इसके अलावा, युवा वर्ग को न नौकरी मिली न भविष्य की उम्मीद। वहीं, पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह द्वारा जारी सार्वजनिक बयान, जिसमें उन्होंने जनता की नाराजगी और बेहतर प्रशासन की जरूरत का समर्थन किया, ने इन भावनाओं को और भड़काया।
  • मुख्य घटनाएँ:
    • 9 मार्च 2025: काठमांडू एयरपोर्ट पर भव्य स्वागत और प्रदर्शन
    • 28 मार्च 2025: टिंकुने में प्रदर्शन के दौरान हिंसक टकराव, कर्फ्यू और सेना की तैनाती
    • 20 अप्रैल 2025: प्रधानमंत्री निवास के पास बड़ी भीड़ और राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारी
    • 29 मई 2025: गणतंत्र दिवस पर भारी भीड़ के साथ प्रदर्शन

इन घटनाओं की विस्तार से जानकारी 2025 नेपाल राजशाही समर्थक विरोध और Nepal protests: Who is King Gyanendra Shah पर देखी जा सकती है।

जनता और युवा वर्ग की सोच

नेपाल में मौजूदा विरोध-प्रदर्शन सिर्फ भूला-बिसरा शाही रोमांस नहीं हैं, बल्कि वे एक गहरे सामाजिक और आर्थिक असंतोष का नतीजा दिखाते हैं। युवाओं और आम नागरिकों में राजशाही की वापसी और हिंदू राष्ट्र की मांग के पीछे कुछ खास वजहें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं:

  • राजनीतिक अस्थिरता:
    पिछले पंद्रह वर्षों में नेपाल में 13 से अधिक बार सरकार बदल चुकी है। इससे न तो नीति में निरंतरता दिखी, न विकास को स्थिर दिशा मिल पाई।
  • भ्रष्टाचार और गवर्नेंस पर गुस्सा:
    नेताओं के विवाद, भ्रष्टाचार और सरकारी तंत्र में लगातार घोटालों ने आम नागरिकों को और आशाविहीन कर दिया है। लोग मानने लगे हैं कि लोकतांत्रिक सत्ता व्यवस्था में उनकी बात सुनी नहीं जा रही।
  • आर्थिक संकट और बेरोजगारी:
    युवा सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। रोज़गार की कमी, विदेश पलायन और भविष्य को लेकर निराशा ने युवाओं को सत्ता परिवर्तन की मांग के लिए उकसाया है।
  • सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान:
    बहुत से लोग, खासकर ग्रामीण इलाकों में, मानते हैं कि राजशाही के समय नेपाल की ‘हिंदू’ पहचान मजबूत थी और सामाजिक समरसता बनी रहती थी। वे वर्तमान व्यवस्था में इस पहचान को कमजोर होता पाते हैं।
  • सोशल मीडिया का प्रभाव:
    #BringBackTheKing और #HinduRashtraNepal जैसे हैशटैग ट्रेंड करते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो, भाषण और फोटो ने युवाओं में पुरानी व्यवस्था के लिए आकर्षण फिर से पैदा किया।

इन्हीं वजहों से आंदोलन में स्कूल-कॉलेज के छात्र, बेरोजगार युवा, पारंपरिक परिवार, और वो वर्ग भी जुड़ गए हैं जो खुद को समय से पीछे छूटता हुआ महसूस करते हैं।

यह आंदोलन सोशल और इमोशनल स्तर पर भी गहराई से जुड़ा है। कई युवा कहते हैं, “हमें बदलाव चाहिए, चाहे वह शाही ताज के साथ आए या फिर नई राजनीति में उम्मीद के साथ।”

इस बदलाव की लहर, भले ही सत्ता में बदलाव लाए या न लाए, लेकिन नेपाल की सामाजिक और राजनीतिक बहस को एक नई दिशा जरूर दे रही है। विस्तार से पढ़ें 2025 नेपाल के राजशाही आंदोलन पर यह रिपोर्ट

विश्व राजनीति में नेपाल की स्थिति और भविष्य की संभावनाएँ

नेपाल, हिमालय की गोद में बसा एक छोटा लेकिन कूटनीतिक रूप से बेहद अहम देश है। हालिया विरोध-प्रदर्शन और राजा ज्ञानेंद्र शाह की वापसी की मांग ने सिर्फ नेपाल ही नहीं, बल्कि भारत और चीन जैसे पड़ोसी देशों, और पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। सवाल उठता है—क्या राजशाही की पुनर्स्थापना से नेपाल का राजनीतिक संतुलन बदल सकता है? और इसके पड़ोसी देशों व वैश्विक राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?

भारत, चीन और नेपाल: कड़े संतुलन की जरुरत

नेपाल की राजनीति हमेशा से भारत और चीन की नीतियों के बीच संतुलन साधने का प्रयास करती रही है। जब राजशाही सत्ता में थी, तब भी दोनों पड़ोसी देशों का प्रभाव नेपाल की विदेश नीति में साफ दिखता था। अब, अगर नेपाल में राजशाही की वापसी होती है, तो इससे कई नए समीकरण बन जाएंगे।

  • भारत के लिए:
    भारत और नेपाल के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और सामरिक रिश्ते बहुत गहरे हैं। नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग भारत के हिंदूवादी संगठनों में उत्साह पैदा कर सकती है, लेकिन साथ ही राजनीतिक जटिलता भी बढ़ा सकती है। यह विश्लेषण बताता है कि भारत में कुछ लोग मानते हैं कि नेपाल में राजशाही से संबंध सहज होंगे, लेकिन इसमें जोखिम भी छिपा है।
    नेपाल की लगातार अस्थिरता भारत की आंतरिक सुरक्षा और सीमा प्रबंधन के लिए भी चुनौती बन सकती है।
  • चीन के लिए:
    चीन का नेपाल में प्रमुख निवेश है और वह वहां की राजनीतिक अस्थिरता से परेशान रहता है। चीन हमेशा एक “स्थिर” नेपाल चाहता है, चाहे वहां कोई भी सत्ता में आए। अगर नेपाल दोबारा हिंदू राष्ट्र बनता है या भारत के ज्यादा करीब जाता है, तो चीन अपनी रणनीति में बदलाव कर सकता है।
    चीन का तिब्बत से जुड़ा सुरक्षा नजरिया भी नेपाल से सीधे जुड़ा हुआ है। अगर राजशाही या हिंदू राष्ट्र के नाम पर नेपाल में अस्थिरता बढ़ती है, तो चीन वहां आर्थिक और राजनीतिक दबाव और बढ़ा सकता है।
पक्ष असर का क्षेत्र भारत के लिए असर चीन के लिए असर
राजशाही वापसी कूटनीति, संस्कृति, सुरक्षा सांस्कृतिक निकटता, लेकिन अस्थिरता का डर निवेश और सुरक्षा पर असर
हिंदू राष्ट्र धार्मिक-सांस्कृतिक समीकरण हिंदू संगठनों में उत्साह, राजनीतिक चुनौती रणनीतिक सजगता
अस्थिरता सीमा प्रबंधन, आंतरिक राजनीति सीमा विवाद, शरणार्थी समस्या आर्थिक हितों पर जोखिम

विस्तार से पढ़ें: Nepal Between India, China, Hindu Nationalism and a Royal Return

वैश्विक राजनीति में नेपाल: बदले हुए रोल की आशंका

नेपाल, अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, हमेशा दो बड़ी ताकतों (भारत और चीन) की राजनीति का हिस्सा रहा है। अगर नेपाल में राजशाही लौटती है, तो इन पहलुओं पर बदल सकती है परिस्थिति:

  • अंतरराष्ट्रीय छवि:
    लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को छोड़कर, अगर नेपाल फिर से राजशाही या धार्मिक राष्ट्र बनता है, तो उसकी नई पहचान अंतरराष्ट्रीय मंच पर संदेह और बहस की वजह बन सकती है।
    विदेशी निवेशक और वैश्विक संस्थाएं इसे “फिर से पुरानी व्यवस्था” की ओर लौटना मान सकती हैं।
  • क्षेत्रीय स्थिरता:
    नेपाल में चल रहा असंतोष और राजनीतिक अस्थिरता पूरे दक्षिण एशिया को प्रभावित कर सकती है। सीमाई इलाकों में सुरक्षा, अवैध आव्रजन और व्यापार पर सीधा असर पड़ सकता है।
  • लोकतांत्रिक धाराओं पर असर:
    अगर नेपाल में राजशाही वापसी को सही ठहराया गया, तो यह दूसरे देशों में भी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर गलत संदेश दे सकता है। इससे क्षेत्रीय और वैश्विक मंच पर नेपाल की भूमिका सीमित हो सकती है।

भविष्य की संभावनाएँ: कहीं उम्मीद, कहीं सन्देह

अब सवाल है, नेपाल में राजशाही की वापसी कितनी संभव है? और लौट भी आई, तो समाज पर इसका क्या असर होगा?

  • राजशाही की वापसी आसान नहीं:
    नेपाल में संविधान और जनमत अभी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में है। हाल के विरोध प्रदर्शनों के बावजूद, संसद और अधिकांश राजनीतिक दल राजशाही वापसी के पक्ष में नहीं दिखते।
    इसपर विस्तार से Nepal’s pro-monarchy protests पढ़ सकते हैं।
  • समाज में विभाजन का खतरा:
    एक तरफ शहरी और जागरूक युवा लोकतंत्र, खुले समाज और समान अधिकारों की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर खासतौर से बुज़ुर्ग और परंपरावादी लोग राजशाही व हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे हैं। यह विभाजन अस्थिरता को और बढ़ा सकता है।
  • नवीन पहचान की तलाश:
    नेपाल की युवा पीढ़ी एक ऐसी व्यवस्था चाहती है जो पारदर्शी, जवाबदेह और भ्रष्टाचार-मुक्त हो। यदि राजशाही वापसी की कोई संभावना बनती है, तो उसे लोकतंत्र, विकास और नागरिक अधिकारों के साथ संतुलन बैठाना होगा।
  • अंतरराष्ट्रीय दबाव:
    भारत, चीन और पश्चिमी देश नेपाल के भीतर लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्षधर हैं। इनकी रणनीति और समर्थन बहुत कुछ तय करेंगे कि भविष्य का नेपाल कैसा हो।

इन सब संकेतों के बीच साफ है कि नेपाल इस समय दोराहे पर है—एक ओर पुरानी पहचान और असंतोष की भूमि, दूसरी ओर नई उम्मीद, बहस और बदलाव की राह। निष्कर्ष में कहें तो, विश्व राजनीति के रंगमंच पर नेपाल की स्थिति जितनी अस्थिर है, उतनी ही संभावनाओं से भरी भी है।

नेपाल और दक्षिण एशिया के ताजा राजनीतिक समीकरणों की विस्तृत जानकारी के लिए यहां देखें और Reuters के इस ताजातरीन विश्लेषण में पढ़ें।

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