भारत‑चीन व्यापार 2025: घाटा, बढ़ती निर्भरता और आत्मनिर्भर भारत की रणनीति

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भारत‑चीन व्यापार समीकरण: बढ़ता घाटा, निर्भरता और भारत के आत्मनिर्भर बनने की राह (2025)

भारत और चीन के बीच व्यापार की परतें हर साल और गहरी हो रही हैं। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार का ग्राफ ऊँचाई पकड़ रहा है, पर इसका असली बोझ भारत पर ही पड़ता दिख रहा है। बीते दो दशकों में व्यापार घाटा तेज़ी से बढ़ा है, और यह अब $99.2 बिलियन (2024-25) को छू चुका है। यही नहीं, चीन की सप्लाई पर भारत की निर्भरता, दवाओं से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स तक, हमारी आर्थिक स्वतंत्रता को सवालों के घेरे में खड़ा करती है।

यह मुद्दा सिर्फ आँकड़ों या आपसी व्यापार तक सीमित नहीं है, बल्कि अब देश की सुरक्षा, रोज़गार और नीति-निर्धारण का बड़ा सवाल बन चुका है। लेकिन स्थिति जितनी चुनौतीपूर्ण है, उतनी ही बदलाव की संभावना भी है। आगे हम समझेंगे कि नए आँकड़े क्या संकेत दे रहे हैं, जोखिम कहाँ हैं, और सरकार की रणनीति किस दिशा में आगे बढ़ रही है।

YouTube लिंक: How US Tensions May Push India Towards China

भारत‑चीन व्यापार का वर्तमान स्वरूप

भारत और चीन के व्यापार संबंध आज बहुत बड़े और जटिल हो चुके हैं। हर साल कारोबारी आँकड़ों में नया रिकॉर्ड बनता है। लेकिन इसका सबसे बड़ा पहलू है भारत का व्यापार घाटा, जो बीते सालों में और गहरा हो गया है। इस सेक्शन में हम ताज़ा आँकड़े, निर्यात‑आयात में आए बदलाव और घाटे की असली तस्वीर समझेंगे, जो चीन पर निर्भरता का सच सामने लाती है।

व्यापार आँकड़े (2024‑25): निर्यात $14.25 बिलियन, आयात $113.5 बिलियन, घाटा $99.2 बिलियन, 2003‑04 से तुलना

2024‑25 में भारत‑चीन का द्विपक्षीय व्यापार अपने चरम पर पहुँच रहा है। भारत ने चीन को कुल $14.25 बिलियन का सामान निर्यात किया, जबकि चीन से आयात $113.5 बिलियन तक जा पहुँचा। इसका नतीजा—$99.2 बिलियन का रिकॉर्ड व्यापार घाटा।

अगर हम 2003‑04 की तुलना करें तो उस समय यह घाटा महज $1.08 बिलियन था। साफ है, चुनिंदा तकनीकी, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा दवा उद्योगों में चीन की पैठ ने इस फासले को लगातार चौड़ा किया है।

इस आँकड़े को तेजी से समझने के लिए नीचे तालिका प्रस्तुत है:

वर्ष निर्यात ($ बिलियन) आयात ($ बिलियन) व्यापार घाटा ($ बिलियन)
2003‑04 2.59 3.67 1.08
2024‑25 14.25 113.5 99.2

जैसा कि Economic Times की रिपोर्ट में बताया गया है, चीन के मुकाबले भारत का निर्यात बहुत पीछे है। आयात बढ़ता जा रहा है, जिससे दोनों देशों के संबंधों की आर्थिक दिशा भी तय हो रही है।

निर्यात‑आयात वृद्धि (2025‑26): अप्रैल‑जुलाई 2025‑26 में निर्यात 19.97 % बढ़कर $5.75 बिलियन, आयात 13.06 % बढ़कर $40.65 बिलियन

2025‑26 के शुरूआती चार महीनों (अप्रैल‑जुलाई) में भारत के निर्यात में बीते साल के मुकाबले 19.97 % की तेज़ ग्रोथ देखी गई और यह $5.75 बिलियन पहुंच गया। यह दिखाता है कि कोशिशें रंग ला रही हैं, पर आयात भी 13.06 % बढ़ा और $40.65 बिलियन हो गया।

  • निर्यात में बढ़त: कृषि, लौह-अयस्क, पॉलिश्ड स्टोन्स जैसे कुछ क्षेत्रों में सुधार
  • आयात का दबाव: स्मार्टफोन, इलेक्ट्रॉनिक चिप, लैब उपकरण, ऑटो पार्ट्स जैसे प्रोडक्ट्स की मांग लगातार बनी हुई है

यहाँ भी समझना जरूरी है कि भारत की कोशिशें रंग तो ला रही हैं, लेकिन आयात की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि घाटा थोड़ा ही कम होता है।

Times of India के मुताबिक, यह बढ़ोतरी दोनों देशों के आर्थिक संबंधों को तो मजबूत करती है, पर भारत के आत्मनिर्भर बनने के लक्ष्य को और कड़ा बना देती है।

व्यापार घाटे की संरचना: घाटा भारत के कुल व्यापार असंतुलन का 35 % है, और पिछले वर्ष से $85.1 बिलियन बढ़ा

2024‑25 में चीन के साथ व्यापार घाटा भारत के कुल व्यापार घाटे का लगभग 35 % है। दूसरे शब्दों में, लगभग एक तिहाई असंतुलन सिर्फ चीन के साथ कारोबार से आता है।

पिछले वर्ष की तुलना में घाटा $85.1 बिलियन बढ़ गया है। यह परिदृश्य दिखाता है कि वर्षों से हालात बदलने के नाम पर भारत बड़े बदलाव नहीं कर पाया है।

Statista की एक रिपोर्ट और TejiMandi की विश्लेषण भी इस बड़ी खाई की पुष्टि करती हैं। चीन पर निर्भरता सिर्फ उत्पादों की नहीं, बल्कि आपूर्ति शृंखला के हर स्तर पर धीरे‑धीरे बढ़ती जा रही है।

ये आँकड़े दिखाते हैं कि व्यापार घाटा केवल सांख्यिकीय अंतर नहीं, बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक सीधी चुनौती बन गया है। स्मार्टफोन से लेकर औद्योगिक मशीनरी तक, हर नई खरीददारी इस खाई को और चौड़ा कर रही है।

चीन की प्रमुख आपूर्ति श्रेणियाँ

चीन दुनियाभर की सप्लाई चेन में अपनी गहरी पैठ बना चुका है, लेकिन भारत पर इसका असर सबसे ज़्यादा महसूस होता है। रोजमर्रा की चीज़ों से लेकर नए जमाने की तकनीकों तक, भारत की ज़रूरतों की बड़ी हिस्सेदारी चीन के ही पास है। यह निर्भरता सिर्फ एक या दो उद्योग में नहीं, बल्कि कई अहम क्षेत्रों में है। यहां आप देख सकते हैं कि हमारी ज़िंदगी और कारोबार के कई हिस्से चीन के बनाए माल और कच्चे माल पर टिके हुए हैं।

फ़ार्मास्युटिकल्स और एंटीबायोटिक्स: ईरीथ्रोमाइसिन का 97.7 % चीन से आता है, सक्रिय फार्मा घटक का उल्लेख

भारतीय दवा कंपनियां दवाओं के निर्माण के लिए एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रेडिएंट्स (API) पर बहुत हद तक चीन पर निर्भर हैं। ईरीथ्रोमाइसिन जैसे जरूरी एंटीबायोटिक का करीब 97.7% हिस्सा सिर्फ चीन से ही आता है। यह सिर्फ एक दवा नहीं, बल्कि और भी कई एंटीबायोटिक और सामान्य फार्मा उत्पादों में चीन की पकड़ दिखाई देती है।

  • API यानी सक्रिय फार्मा घटक, वही मेहनतकश सामग्री है जिससे दवा की असली ताकत बनती है।
  • भारत की दवा इंडस्ट्री, जो पूरी दुनिया में मशहूर है, उसकी रीढ़ में भी चीन की आपूर्ति बड़े स्तर पर जुड़ी हुई है।

इस निर्भरता के चलते, कभी चीन में सप्लाई बाधित हो जाए तो भारतीय बाजार में दवाओं की कीमतें झटके से ऊपर जा सकती हैं। India-China trade gap: Deficit widens to $99.2 billion रिपोर्ट बताती है कि भारत की दवा सुरक्षा, मिलावट के नहीं, बल्कि सप्लाई चेन के कारण खतरे में है।

इलेक्ट्रॉनिक्स और सिलिकॉन वेफ़र: सिलिकॉन वेफ़र पर 96.8 % और फ्लैट‑पैनल डिस्प्ले पर 86 % चीन की आपूर्ति है

अगर आपने कभी सोचा हो कि आपके मोबाइल, टीवी या लैपटॉप में इस्तेमाल होने वाले पुर्जे कहां बनते हैं, तो जवाब है—चीन। भारत में इस्तेमाल होने वाले सिलिकॉन वेफर का 96.8% और फ्लैट-पैनल डिस्प्ले का 86% चीन से आता है।

  • बिना सिलिकॉन वेफर के, चिप या कोई भी स्मार्ट इलेक्ट्रॉनिक सामान बन ही नहीं सकता।
  • टीवी, स्मार्टफोन, लैपटॉप—इन सभी में प्रमुख भूमिका निभाते हैं फ्लैट-पैनल डिस्प्ले, जिन पर चीन की जबरदस्त पकड़ है।

अगर चीन की सप्लाई रुक जाए तो भारत की इनोवेशन की रफ्तार अचानक ब्रेक लगा सकती है। यह इतनी गहरी निर्भरता है कि औद्योगिक स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माण में आत्मनिर्भरता अभी भी सपना ही लगती है।

नवीनीकरण ऊर्जा घटक: सोलर सेल 82.7 % और लिथियम‑आयन बैटरी 75.2 % चीन से आते हैं

ग्रीन एनर्जी भविष्य की दिशा है, लेकिन इस दिशा में भी भारत ने अभी तक खुद के पंख नहीं खोले। सोलर सेल का 82.7% और लिथियम-आयन बैटरी का 75.2% चीन से ही आता है।

भारत की नवीनीकरण ऊर्जा क्रांति, खासकर सौर ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ बढ़ते क़दम, चीनी सप्लायरों के बिना अधूरे हैं।

  • हर नया सोलर प्रोजेक्ट, ज्यादातर चीनी सोलर पैनलों पर टिका है।
  • इलेक्ट्रिक स्कूटर और कारों की बैटरियों के लिए भी चीन की तकनीक जरूरी बनी हुई है।

यानि साफ है, ऊर्जा के क्षेत्र में भारत अपनी तेज़ी से बढ़ रही मांग के लिए चीन पर पूरी तरह निर्भर है।

उपभोक्ता वस्तुएँ: लैपटॉप (80.5 %), एम्ब्रॉयडरी मशीनरी (91.4 %), विस्कोस यार्न (98.9 %) जैसी रोज़मर्रा की चीज़ों में चीन का दबदबा

आपके ऑफिस का लैपटॉप हो या कपड़े बनाने वाली मशीन, यहां भी चीन की मजबूत पकड़ है। भारत में बिकने वाले अधिकतर लैपटॉप (80.5%), एंब्रॉयडरी मशीन (91.4%), और विस्कोस यार्न (98.9%) चीन की ही फैक्ट्रियों से आते हैं।

  • बच्चे के स्कूल बैग से लेकर फैशन इंडस्ट्री तक, हर समान में चीन की कलाकारी शामिल है।
  • विस्कोस यार्न, जो हर रोज़ इस्तेमाल होने वाले कपड़े का मूल है, लगभग पूरा चीन से आता है।

फैक्ट्रियों और बाजारों में, चीन की आपूर्ति की कमी महसूस होते ही उत्पादन की गति धीमी पड़ जाती है। फेस्टिव सीजन हो या किसी भी मौके पर बढ़ी मांग, भारत का उपभोक्ता बाज़ार चीनी सप्लाई के बिना सुना सा रह जाएगा।

उत्पाद / घटक चीन से निर्भरता (%)
ईरीथ्रोमाइसिन (API) 97.7
सिलिकॉन वेफर 96.8
फ्लैट-पैनल डिस्प्ले 86
सोलर सेल 82.7
लिथियम-आयन बैटरियां 75.2
लैपटॉप 80.5
एम्ब्रॉयडरी मशीनरी 91.4
विस्कोस यार्न 98.9

यहाँ साफ दिखता है कि, चाहे फार्मा हो या फैशन, तकनीक हो या टेक्सटाइल, चीन के बगैर भारत की बड़ी औद्योगिक तस्वीर अधूरी है।

भारत के लिए जोखिम और प्रभाव

भारत और चीन के व्यापारिक रिश्तों में बढ़ती निर्भरता सिर्फ आर्थिक आंकड़े नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरे सियासी, आर्थिक और सामाजिक खतरे भी छुपे हैं। चीन से आयात पर बढ़ता भरोसा देश की नीतिगत कार्यक्षमता पर असर डालता है और खासकर तब जब तनाव के समय सप्लाई बाधित होती है। आइए जानते हैं इनके मुख्य प्रभाव और भारत के लिए खतरे क्या हैं।

आर्थिक निर्भरता: चीन की आपूर्ति पर अत्यधिक भरोसा नीति बनावट में कमजोरी पैदा करता है, विशेषकर तनाव के समय।

जब किसी एक देश पर ज़रूरत की वस्तुओं के लिए अधिक निर्भरता हो जाए, तो वह देश अपनी नीतियों में कमजोर हो जाता है। चीन के मामले में भारत के कई अहम उद्योग जैसे फार्मा, इलेक्ट्रॉनिक्स और उपभोक्ता वस्त्र चीन से भारी मात्रा में कच्चा माल और तैयार सामान मंगाते हैं।

  • संकट के समय सप्लाई रोके जाने का जोखिम : जैसे कश्मीर तनाव, सीमाई विवाद, या वैश्विक व्यापार संकट के दौर में चीन ने सप्लाई रोकने या महंगी करने का इस्तेमाल किया है।
  • नीति निर्माण में भागीदारी बाधित : जब आपूर्ति किसी एक स्रोत पर निर्भर हो, तो नीति निर्माता स्वतंत्र या कठोर कदम उठाने में हिचकते हैं।
  • मूल्य निर्धारण नियंत्रण खोना : जब वितरण में विकल्प कम हों, तो कीमतें बढ़ना स्वाभाविक है, जिससे बाजार अस्थिर होता है।

यह निर्भरता भारत की अर्थव्यवस्था की रक्षा कवच को कमजोर बनाती है और विकास में बाधा बनती है। हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, इस मुद्दे को लेकर गंभीर चिंताएं उठ रही हैं।

विदेशी मुद्रा पर दबाव: बड़े आयात से रिज़र्व में खपत, मुद्रा अवमूल्यन और महंगाई के जोखिम को उजागर करें।

चीन से भारी मात्रा में आयात होने की वजह से भारत की विदेशी मुद्रा रिज़र्व पर दबाव बढ़ता है। इसे समझने के लिए देखें कि:

  • मुद्रा का बाहर जाना और रिज़र्व की कमी : जब निर्यात से कम पैसा आता है और आयात ज्यादा होता है, तो विदेशी मुद्रा की बचत घटती है।
  • रुपया अवमूल्यन का खतरा : रिज़र्व कम होने पर भारत की मुद्रा पर दबाव बढ़ता है, जिससे रुपया कमजोर होता है।
  • महंगाई बढ़ने का डर : कमजोर रुपया आयातित वस्तुओं की कीमत बढ़ा देता है, जो अंततः उपभोक्ता तक महँगाई के रूप में पहुँचता है।

यह चक्र आर्थिक स्थिरता को चुनौती दे सकता है और विकास दर को धीमा कर देता है। इसलिए विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत के लिए एक गंभीर मुद्दा बन गया है। यह स्थिति IAS Gyan में भी विस्तार से बताई गई है।

स्थानीय उद्योगों पर असर: सस्ते आयात से घरेलू निर्माता प्रतिस्पर्धा में पीछे रहते हैं, निवेश घटता है।

सस्ता और बड़े पैमाने पर आयात भारत के घरेलू उद्योगों के लिए जहर साबित हो रहा है।

  • प्रतिस्पर्धा की मार : चीन से सस्ते माल आने की वजह से घरेलू कंपनियों को उत्पादन लागत कम करने के लिए जूझना पड़ता है या वे बाजार में टिक नहीं पाती।
  • निवेश में कमी : जब उद्योग फायदे में नहीं रहते, तो नया निवेश रुकता है। फैक्ट्री लगाने, तकनीक अपनाने, और नई नौकरियां पैदा करने की गति धीमी हो जाती है।
  • मजदूर वर्ग प्रभावित होता है : स्थानीय रोजगार पर असर पड़ता है, जिससे सामाजिक असंतोष बढ़ सकता है।

इस तरह, इतनी बड़ी आयात निर्भरता से भारत के खुद के उद्योग ना केवल कमजोर होते हैं, बल्कि उनकी बुनियादी ताकत भी क्षीण होती है। ORF की रिपोर्ट में इसी कमजोरी को प्रमुख बताकर सुधार की सलाह दी गई है।

लंबी अवधि की औद्योगिक वृद्धि: आयात पर निर्भरता घरेलू क्षमता निर्माण को रोकती है, जिससे निर्यात‑आधारित विकास धीमा पड़ता है।

देश के विकास के लिए घरेलू उत्पादन बढ़ाना ज़रूरी होता है। जब हम इलस्ट्रेशन देखें:

  • स्थानीय उत्पादन बढ़ाने की चाह में बाधा : लगातार आयात पर निर्भरता से भारत में नई तकनीक सीखने और अपनाने का अवसर कम होता है।
  • निर्यात आधारित विकास धीमा पड़ता है : घरेलू उद्योग कमजोर होंगे तो उनका निर्यात भी कम होगा, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की पकड़ कमजोर होती है।
  • स्वदेशी उत्पादन के लिए प्रोत्साहन कम : नीति निर्माता और निवेशक भी विदेशी माल के भरोसे रह जाते हैं, जिससे आत्मनिर्भरता की राह बंद होती है।

इस विषय पर राहुल ग्रुप (RhG) की रिसर्च बताती है कि यदि यह ट्रेंड ना बदला गया, तो भारत की औद्योगिक प्रगति में गंभीर बाधा आएगी।


भारत की वर्तमान आर्थिक नीति को समझदारी से पुनर्निर्धारित करना होगा ताकि चीन पर निर्भरता कम हो। इस पर नियंत्रण न लगाया गया, तो हमारे आर्थिक संसाधन कमजोर पड़ेंगे, मुद्रा संकट उभरेगा, स्थानीय उद्योग कमजोर होंगे और लंबी अवधि में विकास के लक्ष्य अधूरे रह जाएंगे।

यह जोखिम हमारे रोज़मर्रा के जीवन और अगले पीढ़ी के अवसरों पर सीधा असर डालते हैं। इसलिए भारत के लिए यह ज़रूरी है कि अपनी आपूर्ति श्रृंखला को विविधता दे और घरेलू उत्पादकों का समर्थन बढ़ाए।

भारत की चीन निर्भरता कम करने के सरकारी कदम

चीन पर भारत की आर्थिक निर्भरता कम करने के लिए केंद्र सरकार ने कई अहम कदम उठाए हैं। ये कदम न केवल घरेलू उत्पादन बढ़ाने और विदेशी आपूर्ति पर नियंत्रण करने के लिए हैं, बल्कि गुणवत्ता में सुधार और सुरक्षा के लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण हैं। सरकार का मकसद है कि भारतीय उद्योगों को मजबूत बनाकर imports को सीमित किया जाए और आर्थिक संतुलन बनाए रखा जाए। इसमें उत्पादन‑लिंक्ड प्रोत्साहन योजनाएँ, सख्त गुणवत्ता नियंत्रण, आपूर्ति के विविधीकरण और व्यापार सुरक्षा उपाय प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।

उत्पादन‑लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजनाएँ: 14+ क्षेत्रों में PLI के लक्ष्य, निवेश आकर्षण और घरेलू उत्पादन बढ़ाने की योजना

सरकार ने PLI (Production Linked Incentive) स्कीम के तहत 14 से अधिक प्रमुख क्षेत्रों को चुना है ताकि घरेलू उत्पादन को बढ़ावा मिल सके। इस योजना का लक्ष्य है ऐसे उद्योगों को प्रोत्साहित करना, जो चीन पर निर्भरता को कम कर सकें।

  • यह योजना निवेश को आकर्षित करती है और नई तकनीकें लाने में मदद करती है।
  • इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मा, ऑटोमोबाइल, टेक्सटाइल, मोबाइल, अक्षय ऊर्जा जैसे क्षेत्र इसमें शामिल हैं।
  • कंपनियों को उत्पादन के आधार पर नकद प्रोत्साहन मिलता है, जिससे उनके लिए घरेलू निर्माण फायदे का सौदा बनता है।
  • इससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और औद्योगिक आधार मजबूत होगा।

सरकार की इस पहल के तहत इन क्षेत्रों में निवेश बढ़ा है और कई कंपनियां उत्पादन बढ़ाने के लिए कदम उठा रही हैं। इससे न सिर्फ निर्यात बढ़ेगा, बल्कि आयात में कमी भी आएगी। PLI स्कीम भारत की आत्मनिर्भरता की दिशा में एक ठोस कदम है। Asianet News हिंदी की रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है।

गुणवत्ता नियंत्रण और प्रमाणन: कठोर मानक, परीक्षण प्रोटोकॉल, अनिवार्य प्रमाणन के माध्यम से नकली या घटिया वस्तुओं को रोकना

केवल उत्पादन बढ़ाना ही काफी नहीं है, गुणवत्ता पर नियंत्रण भी जरूरी है। सरकार ने इस दिशा में भी कई कदम उठाए हैं:

  • नए और सख्त गुणवत्ता मानक लागू किए गए हैं, जो नकली और घटिया वस्तुओं को बाज़ार में आने से रोकते हैं।
  • उद्योगों और आयातकों के लिए टेस्टिंग और सर्टिफिकेशन को अनिवार्य किया गया, ताकि माल की गुणवत्ता की जांच हो सके।
  • विशेषकर फार्मा, इलेक्ट्रॉनिक्स और उपभोक्ता वस्तुओं के लिए सख्त प्रमाणन प्रक्रियाएं लागू हैं।
  • भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) प्रमाणन को फोकस किया जा रहा है ताकि घरेलू और आयातित सामान दोनों विश्वसनीय बनें।

इन उपायों से नकली वस्तुओं पर रोक लगी है और उपभोक्ताओं में भरोसा बढ़ा है। यह कदम घरेलू उत्पादकों को भी मजबूती देता है क्योंकि वे गुणवत्ता में प्रतिस्पर्धा कर पाते हैं।

विविधीकरण और वैकल्पिक आपूर्तिकर्ता: व्यापार मार्गों को विस्तृत करने, अन्य देशों से सोर्सिंग और आपूर्ति श्रृंखला सुरक्षा की सलाह

चीन पर एकतरफा निर्भरता छोड़कर, सरकार ने सप्लाई चेन और व्यापार को विविध करने की रणनीति अपनाई है।

  • न केवल व्यापार मार्ग बल्कि सोर्सिंग को भी अनेक देशों (जैसे दक्षिण कोरिया, जापान, वियतनाम, यूएस, यूरोप) से विस्तृत किया जा रहा है।
  • वैश्विक आपूर्ति नेटवर्क में सम्मिलित होकर, भारत अपनी सुरक्षा और आपूर्ति की स्थिरता सुनिश्चित कर रहा है।
  • इससे लागत नियंत्रण, आपूर्ति मेंडर कुशलता और आपातsituations में विकल्प उपलब्ध हो पाते हैं।
  • टैक्नोलॉजी ट्रांसफर और साझेदारी के लिए कई द्विपक्षीय समझौते बढ़ाए गए हैं।

इस पहल से भारत अपनी सप्लाई चेन पर अधिक नियंत्रण पा रहा है, जिससे चीन के प्रभाव को सीमित किया जा सके और जोखिम कम हो।

विरोधी‑डम्पिंग ड्यूटी और व्यापार उपाय: डम्पिंग विरोधी शुल्कों की सूची, प्रभावित क्षेत्रों (रासायनिक, इंजीनियरिंग) और उनका प्रभाव

सरकार ने बाजार में सस्ते और अनियमित तरीके से وارد होने वाले माल को रोकने के लिए विरोधी-डम्पिंग ड्यूटी लागू की है।

  • रासायनिक, इंजीनियरिंग, धातु और कई अन्य क्षेत्रों में डम्पिंग की शिकायतों के बाद ड्यूटी लगाई गई है।
  • इससे घरेलू उद्योगों की सुरक्षा हुई है और वे बाजार में प्रतिस्पर्धा कर पाए हैं।
  • डम्पिंग शुल्कों के कारण सस्ते आयात को महंगा बनाकर घरेलू उत्पादों को बढ़ावा मिला है।
  • यह नीति भारत के उद्योगों को मजबूत कर विदेश निर्भरता कम करने में मददगार साबित हुई है।

इन उपायों से घरेलू उत्पादन को बढ़ावा मिलता है और निर्यात की क्षमता सुधरती है। साथ ही व्यापार घाटे को कम करने में भी यह प्रभावी कदम है।

सरकार के इन सब कदमों से स्पष्ट होता है कि भारत अपने आर्थिक भविष्य को मजबूत बनाने के लिए ठोस प्रयास कर रहा है ताकि चीनी निर्भरता जाएगा सके। ऐसे प्रयासों से न केवल ट्रेड बैलेंस सुधरेगा, बल्कि देश की आर्थिक सुरक्षा भी प्रबल होगी। अधिक जानकारी के लिए आप The Print की इस रिपोर्ट देख सकते हैं।

निष्कर्ष

भारत‑चीन के व्यापार में लगातार वृद्धि के बावजूद, घाटा बढ़ता जा रहा है और ये असंतुलन भारत की अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती बन गया है। चीन पर निर्भरता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सुरक्षा, नीति और दीर्घकालिक विकास के लिए भी जोखिम खड़ा करती है।

सरकार के उत्पादन‑लिंक्ड प्रोत्साहन, आपूर्ति श्रृंखला के विविधीकरण, गुणवत्ता नियंत्रण और व्यापार उपाय जैसे कदम सही दिशा में हैं, लेकिन इन्हें और तेज़ी से लागू करना होगा। भारत को अपनी आत्मनिर्भरता की राह पर मजबूती से आगे बढ़ना होगा ताकि आयात पर निर्भरता कम हो और घरेलू उद्योग मजबूत हों।

यह समय सबक लेने और नीतिगत सुधारों के साथ एक नई आर्थिक पहचान बनाने का है। जब तक भारत चीन के साथ व्यापारिक संतुलन नहीं बनाएगा, तब तक विकास की क्षमता सीमित ही रहेगी। इस दिशा में आपकी जागरूकता और समर्थन बदलाव का पहला कदम हो सकता है।

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